राजनीति

बिहार में इफ्तार पर सियासत: तेजस्वी के ‘टीका-टोपी’ पर बीजेपी का हमला

पटना, 22 मार्च 2025 — बिहार की सियासत एक बार फिर गर्मा गई है, और इस बार वजह बना है एक इफ्तार पार्टी, जिसमें नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की टोपी और टीका ने राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया है। एक धार्मिक आयोजन में शामिल होना कोई नई बात नहीं, लेकिन जब ये राजनीति और प्रतीकों की राजनीति से जुड़ जाए, तब बात सिर्फ धार्मिक सौहार्द की नहीं रहती, बल्कि सियासी बयानबाज़ी का मुद्दा बन जाती है।

बिहार की राजनीति पहले से ही जातीय समीकरण, धर्म और प्रतीकों की राजनीति से प्रभावित रही है, और अब एक इफ्तार पार्टी ने राज्य की राजनीति को एक बार फिर दो हिस्सों में बांट दिया है — धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता, असली आस्था बनाम दिखावटी धार्मिकता।

घटना क्या थी?

घटना की शुरुआत रमजान के मौके पर पटना में आयोजित एक बड़े इफ्तार समारोह से हुई, जिसका आयोजन एक स्थानीय मुस्लिम संगठन ने किया था। इस इफ्तार में कई राजनीतिक हस्तियाँ शामिल हुईं, जिनमें सबसे प्रमुख चेहरा रहे तेजस्वी यादव, जो आरजेडी (राष्ट्रीय जनता दल) के नेता और बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं।

तेजस्वी यादव ने इफ्तार में शरीक होकर मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ रोजा खोला, और इस मौके पर उन्होंने सिर पर सफेद टोपी पहन रखी थी — जो मुस्लिम समुदाय की धार्मिक पहचान मानी जाती है। लेकिन साथ ही उनके माथे पर लाल टीका भी लगा हुआ था, जो हिंदू धर्म का प्रतीक माना जाता है।

बीजेपी का हमला: “ये दोहरा चरित्र क्यों?”

इफ्तार की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के कुछ ही घंटों के भीतर बिहार बीजेपी के नेताओं ने तेजस्वी पर निशाना साधना शुरू कर दिया।

बीजेपी प्रवक्ता निखिल आनंद ने कहा, “तेजस्वी यादव आखिर तय करें कि उन्हें टोपी पहननी है या टीका लगाना है। ये दिखावे की धर्मनिरपेक्षता है जो केवल मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए की जाती है। यह अवसरवाद है, और कुछ नहीं।”

इसके अलावा बीजेपी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए कहा, “तेजस्वी की राजनीति केवल टोपी और टीके तक सीमित रह गई है। इफ्तार में जाना गलत नहीं है, लेकिन क्या उन्होंने कभी रामनवमी या हनुमान जयंती पर इसी तरह भाग लिया? ये सिर्फ एक पक्ष विशेष को खुश करने की राजनीति है।”

आरजेडी का जवाब: “सबका साथ, सबका सम्मान”

तेजस्वी यादव और आरजेडी ने इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए पलटवार किया। तेजस्वी ने कहा, “मैं भारतीय संस्कृति का प्रतीक हूं, जहाँ गंगा-जमुनी तहज़ीब को मान्यता दी जाती है। टीका मेरा व्यक्तिगत विश्वास है और टोपी उस इफ्तार समारोह के सम्मान का प्रतीक थी। क्या एक व्यक्ति दोनों प्रतीकों को नहीं अपना सकता?”

आरजेडी प्रवक्ता मनोज झा ने कहा, “बीजेपी को तेजस्वी के पहनावे से दिक्कत है, लेकिन जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टोपी पहनते हैं या गुरुद्वारा में जाकर सिर ढकते हैं, तब कोई सवाल नहीं उठता। यह दिखाता है कि बीजेपी की राजनीति अब प्रतीकों से डरने लगी है।”

सियासी पृष्ठभूमि: बिहार की राजनीति में धर्म का समीकरण

बिहार हमेशा से जातीय और धार्मिक समीकरणों पर आधारित राजनीति का केंद्र रहा है। मुस्लिम और यादव (MY) समीकरण आरजेडी की राजनीति का मूल रहा है, और बीजेपी-नीतीश गठबंधन की राजनीति सवर्ण, पिछड़े वर्ग और शहरी मतदाताओं पर आधारित रही है।

रमजान के महीने में इफ्तार पार्टियों का आयोजन बिहार में नई बात नहीं है। लालू यादव के समय से ही यह परंपरा चली आ रही है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, जैसे-जैसे राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ा है, इन आयोजनों को केवल “वोट बैंक” की राजनीति के चश्मे से देखा जाने लगा है।

क्या धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल राजनीति के लिए हो रहा है?

तेजस्वी यादव का इफ्तार में टोपी पहनना और साथ में टीका लगाना इस सवाल को फिर से खड़ा करता है — क्या नेता धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल केवल वोट पाने के लिए करते हैं?

राजनीतिक विश्लेषक डॉ. शरद प्रधान कहते हैं, “भारतीय राजनीति में प्रतीकात्मकता की बड़ी भूमिका होती है। एक टोपी, एक टीका या एक मंदिर-मस्जिद यात्रा — ये सब मतदाताओं को संदेश देने के माध्यम बनते हैं। तेजस्वी का ये कदम दोनों वर्गों को संदेश देने का प्रयास हो सकता है कि वे सबको साथ लेकर चलने वाले नेता हैं।”

लेकिन यही प्रतीक कभी-कभी दोधारी तलवार बन जाते हैं, जैसा कि बीजेपी ने तेजस्वी के इस कदम को अवसरवादी बताया।

सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएं

तेजस्वी की तस्वीरों पर सोशल मीडिया पर जमकर बहस हो रही है। कुछ यूज़र्स ने उन्हें “सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक” बताया, तो कईयों ने उन्हें “वोट के लिए हर हथकंडा अपनाने वाला नेता” कहा।

एक यूज़र ने लिखा, “यही तो भारत की खूबसूरती है — एक नेता इफ्तार में टोपी पहनता है और साथ में टीका भी लगाता है। धर्म को जोड़ने के लिए राजनीति होनी चाहिए, तोड़ने के लिए नहीं।”

जबकि दूसरे ने कहा, “तेजस्वी को यह तय करना चाहिए कि वे किस ओर खड़े हैं। ये सब ड्रामा है मुस्लिम वोटों के लिए।”

राजनीतिक रणनीति या असली सद्भाव?

सवाल उठता है — क्या तेजस्वी यादव का ये कदम एक रणनीतिक चाल थी आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए, या फिर यह भारत की विविधता और एकता का प्रतीक था?

चुनाव विशेषज्ञ मानते हैं कि बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिम मतदाताओं का रुझान महत्वपूर्ण होगा। ऐसे में आरजेडी की कोशिश रहेगी कि वह इस वर्ग को अपने पक्ष में बनाए रखे। वहीं बीजेपी इन प्रतीकों के ज़रिए “तुष्टिकरण” का नैरेटिव गढ़कर बाकी वर्गों को लामबंद करना चाहती है।

क्या ये सियासत आने वाले चुनावों की दिशा तय करेगी?

तेजस्वी यादव इस समय बिहार में विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा हैं और उन्हें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। ऐसे में उनका हर कदम राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बन जाता है। चाहे वह किसानों के मुद्दे हों, बेरोजगारी या अब धार्मिक सौहार्द।

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इफ्तार जैसे आयोजनों को लेकर हो रही बहसें दरअसल एक बड़ी रणनीति का हिस्सा हैं, जहां प्रतीकों के ज़रिए जनमानस को प्रभावित करने की कोशिश होती है।

धर्म के नाम पर वोट: लोकतंत्र के लिए खतरा या साधन?

यह बहस केवल बिहार तक सीमित नहीं है। पूरे देश में अक्सर देखा जाता है कि धर्म और उससे जुड़े प्रतीकों का इस्तेमाल चुनावी फायदे के लिए होता है। इफ्तार पार्टी हो या मंदिर यात्रा, ये सब अब वोटों की गणना में जुड़ गए हैं।

क्या यह लोकतंत्र के लिए खतरा है? क्या इससे भारत की बहुलता को नुकसान होता है? या फिर यह सिर्फ राजनीतिक खेल का एक हिस्सा है जो जनता समझती है और उसी अनुसार फैसला लेती है?

इन सवालों के जवाब जटिल हैं, लेकिन एक बात स्पष्ट है — राजनीति अब केवल विकास और योजनाओं की नहीं रही, बल्कि भावनाओं और प्रतीकों की हो गई है।

निष्कर्ष: इफ्तार की थाली में सियासत की परोस

तेजस्वी यादव की एक इफ्तार पार्टी में उपस्थिति, टोपी और टीका — इन तीनों ने बिहार की राजनीति को एक बार फिर सियासी उबाल दे दिया है। बीजेपी ने इसे तुष्टिकरण बताया, आरजेडी ने इसे धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक, और जनता इस पूरे दृश्य को उत्सुकता और संदेह दोनों नजरों से देख रही है।

राजनीति में प्रतीकों की ताकत को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन जब ये प्रतीक लोगों को जोड़ने की बजाय तोड़ने का माध्यम बन जाएँ, तब चिंता बढ़ जाती है। तेजस्वी यादव की टोपी और टीका केवल एक तस्वीर नहीं, बल्कि आने वाले चुनावों का ट्रेलर हो सकते हैं।

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